स्त्री स्त्री सिर्फ तब तक तुम्हारी होती है जब तक वो तुमसे रूठ लेती है,लड लेती है आंसू बहा बहाकर , और दे देती है दो चार उलाहना तुम्हे। कह देती है जो मन में आता है उसके बिना सोचे,बेधडक लेकिन जब वो देख लेती है उसके रूठने का, उसके आंसुओं का कोई फर्क नहीं है तुम पर तो एकाएक वो रूठना छोड देती है रोना छोड देती है। मुस्कुराकर देने लगती है जवाब तुम्हारी बातों पर, समेट लेती है वो खुद को किसी कछुए की तरह अपने ही कवच में , और तुम समझ लेते हो कि सब कुछ ठीक हो गया है। तुम जान ही नही पाते कि ये शांत नही है मृतप्राय हो चुकी है, कहीं न कहीं गला घोंट दिया है उसने अपनी भावनाओं का , और अब जो तुम्हारे पास है, वो तुम्हारी होकर भी तुम्हारी नहीं है। क्योंकि स्त्री , सिर्फ तब तक तुम्हारी होती है जब तक….

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